आयुर्वेद और निरामय स्वास्थ्य

क्या निरामय यानी रोगमुक्त शरीर को स्वस्थ शरीर कहा जा सकता है? या यूँ कहे- ‘Is absence of any disease health?’ तो इसका उत्तर है नहीं। किसी भी रोग का न होना यानी स्वस्थ होना नहीं है।

आयुर्वेद में स्वस्थ व्यक्ति की व्याख्या करते हुए जो मानक बताए है वे इस तरह हैं, जब व्यक्ति के तीन दोष, सप्त धातु, तीन मल यह योग्य प्रमाण में है। तथा मन, इंद्रिय और आत्मा प्रसन्न है तब उसे स्वस्थ कहा जाएगा।

शरीर के तीन दोष वात, पित्त, कफ ये शिरीर के सारे क्रियात्मक व्यवहार को चलाते हैं। सप्त धातु यानी रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थी, मज्जा, शुक्र शरीर का निर्माण तथा धारण करते हैं। तीन मल जो शरीर के त्याज्य तत्त्वों का निष्कासन करते हैं और शरीर को निर्मल बनाए रखते हैं वह है, मल, मूत्र, स्वेद। स्वस्थ होने के लिए केवल दोष, धातु, मल इनका योग्य प्रमाण में होना जितना जरूरी उतना ही मन और मन जिन इंद्रियों द्वारा कार्य करता है उनका स्वस्थ होना आवश्यक है।

संक्षेप में आयुर्वेद मानसिक तथा शारीरिक दोनों स्तर को, स्वस्थता को, व्यक्ति को स्वस्थता के लिए महत्त्व देता है। आयुर्वेद की यह स्वस्थ व्यक्ति की व्याख्या जागतिक आरोग्य संस्था के स्वस्थ की संकल्पना के साथ मेल खाती है।

स्वस्थ व्यक्ति का स्वास्थ्य कायम रखना यह आयुर्वेद शास्त्र का प्रथम उद्देश्य है। इस उद्देश्य पूर्ति के लिए आयुर्वेद में उन्हेें दिशा निर्देश दिए गए है।

शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य प्राप्ति के लिए आयुर्वेद ने तीन मुख्य स्तंभ बताए है वे हैं आहार, निद्रा, ब्रह्मचर्य।

आहार से ही शरीर की धारणा तथा पोषण होता है। आहार ही शरीर को कार्य करने के लिए बल देता है। पुराने जमाने में कहा जाता था कि भोजन करना यह कार्य मात्र पेट भरना नहीं है इसे एक यज्ञकर्म के जैसे पवित्र कर्म मानना चाहिए।

आयुर्वेद में आहार ग्रहण करने के लिए मुख्य आठ नियम बताए हैं।

  1. प्रकृति (Natural Qualities): आहारीय द्रव्यों का अपना एक स्वभाव होता है। जैसे कुछ द्रव्य स्वभाव से पचने में हलके होते तो कोई भारी होते हैं। जैसे मूंग की दाल मूंग की खिचड़ी स्वभावत: हलकी है वही उडद की दाल और साबुदाना भारी है। दूध शीत और स्निग्ध है, चना दाल रूखी होती है जो वात को बढ़ाती है। इसलिए आहार सेवन करते वक्त द्रव्य के गुण क्या है यह ध्यान में रखकर उनका योग्य प्रमाण मे सेवन करना चाहिए। जो पदार्थ पचने में भारी है वे मात्रा में कम खाएँ। पाचन शक्ति का विचार करके ही भोजन करना चाहिए। जैसे बुखार ठीक होने के बाद जब तक अच्छी तरह से भूख नहीं लगती तब तक पचने में हलके द्रव्य का ही सेवन करें।
  2. करण (Method for Preparation): आहार द्रव्य पर सेवन के पहले विविध पाक क्रिया करके उसके स्वाभाविक गुणों में परिवर्तन लाया जा सकता है। जैसे- मंद आँच पर भूँजने पर दालें या चावल पचने में हलके होते हैं। ऐसे पदार्थ मधुमेही के रूग्णों के लिए लाभदायक होते हैं। अग्नि संस्कार से पचने मे भारी अन्नपदार्थ हलके होते हैं, दही मथने के बाद तैयार होनेवाला छाछ लघु और जठराग्नि बढ़ानेवाला होता है। जो गर्मी में दिनो में तृप्ती देता है तथा लाभदायक होता है। इसलिए आहार ग्रहण करने के पहले उस पर योग्य संस्कार करके अपेक्षित परिवर्तन करना जरूरी होता है।
  3. संयोग (Combination): भिन्न स्वभाव के दो या अधिक आहारीय द्रव्यों का एकत्रित सेवन से होनेवाले संयोग का विचार आयुर्वेद में आहार सेवन करते वक्त किएा है। जैसे, फू्रट सॅलेड में दूध और फल भिन्न द्रव्य एकत्र आते हैं। सेहत के लिए ऐसे संयोग लंबे समय तक सेवन करने से हानीकारक हो सकते हैं। पनीर या दही के साथ किसी भी सब्जी का संयोग यह पचने के लिए भारी होता है।
  4. प्रमाण (Quantum): हर व्यक्ति की आहार का पाचन करने की क्षमता होती है। उस क्षमता को ध्यान में रखते हुए कितने प्रमाण मे आहार सेवन करे यह निश्चित करना चाहिए। एक समय मे बहुत ज्यादा न खाते हुए था़ेडेे-थोड़ेे मात्रा मे दिन मे 3-4 बार भोजन करने से अन्न का पाचन अच्छा होता है। जब भी भोजन करे तब ध्यान में रखें कि हमारे आहार ग्रहण क्षमता के 4 भाग करें। उसमें से 2 भाग घन आहार का सेवन करें 1 भाग द्रव आहार का सेवन करें और 1 भाग खाली रखें ताकि अन्न का पाचन सुचारू रूप से हो सकें।
  5. देश (Habitat): हर प्रांत की अपनी एक खाद्य संस्कृति होती है। उस प्रांत का वातावरण उपलब्ध आहारीय द्रव्य तथा वहाँ बसनेवाली लोगों की शारीरिक, मानसिक जरूरतों के आधार पर वह निर्माण होती है। जैसे भारत के दाक्षिणात्य प्रांत मे इडली डोसा तो उत्तर में दूध दही से भरपूर पंजाबी पदार्थों का समावेश होता है। वह विशिष्ट आहार, पद्धती उस देश के लिए उचित होती है। परंतु वही आहार दूसरे प्रांत मे रोज खाने से उसका पाचन क्रिया पर अनुचित परिणाम होगा। इसी प्रकार जिस प्रदेश मे व्यक्ति का जन्म हुआ है उस प्रांतनुसार व्यक्ति के पाचनशक्ति का विकास होता है। जैसे पंजाबी लोग रोज पनीर पचाने की क्षमता रखते हैं परंतु वही महाराष्ट्रीयन लोगों के लिए अपचन का कारण बन सकता है। इसलिए देशानुरूप सात्मय आहार का सेवन तंदुरुस्त जीवन के लिए महत्वपूर्ण है।
  6. काल (Time Season): स्वस्थ व्यक्ति को ऋतुनुसार आहार ग्रहण करना चाहिए। जैसे ठंडी के दिनों में अर्थात हेमंत ऋतु मे स्वभावत: पचनशक्ति उत्तम होती है। उस वक्त पचने में भारी पदार्थ अधिक मात्रा में सेवन किए जा सकते हैं। परंतु वही पदार्थ गर्मी के दिनों में पचनशक्ति कम होने के कारण घातक सिद्ध हो सकते हैं। इसलिए गर्मी के दिनों में पचने में हलका आहार लें और भारी पदार्थ खाने हो तो वह कम मात्रा मे खाएँ। उसी प्रकार गर्मी के दिनों में घन आहार कम करते हुए तरल पदार्थ जैसे छाछ, रसीले फल आदि का सेवन करें।आहार सेवन करते वक्त दिन के कौन से समय में ग्रहण कर रहे हैं इस बात का ध्यान रखते हुए उसकी मात्रा मे अंतर करना चाहिए। जैसे सुबह थोड़ा अधिक मात्रा में आहार लें लेकिन रात मे बहुत ही कम मात्रा में भोजन करें। साधारणत: सुबह के भोजन का समय सुबह 10 से दोपहर 2 बजे के बीच में हो। यह पित्त का काल होने के कारण इस समय खाया हुआ अन्न का पाचन सहजता से हो जाता है।
  7. आहार ग्रहण करने के नियम (Rules of use): आहार सेवन करते समय कुछ और भी नियमों का पालन जरूरी है। जैसे पहले खाए हुए अन्न का उचित पाचन होने के बाद अच्छी तरह से भूख लगने पर ही दूसरा अन्न ग्रहण करें। सामान्यत: दो खाने के बीच मे तीन घंटे का अवकाश होना जरूरी होता है। आहार गर्म हो और उसमें ताजा गाय के घी जैसे स्नेहयुक्त पदार्थ होने चाहिए। बहुत जल्दी-जल्दी या बहुत धीरे-धीरे नहीं खाना चाहिए। यदि कोई नापसंद खाना यदि शरीर के लिए लाभदायक हो तो उसे पूरी श्रद्धा से खाए। ज्यादा बातें करते हुए, हँसते हुए या टी. वी. देखते हुए भोजन करना टालें।
  8. उपयुक्तता: यह सबसे महत्वपूर्ण घटक है, जो स्वयं आहार सेवन करता है। आहार लेते समय व्यक्ति के सात्म्यता का पूर्ण खयाल रखें। किसी विशिष्ट व्यक्ति के लिए विशिष्ट आहार लाभदायक या कष्टकर Allergic हो सकता है उसका जरूर ध्यान रखें। उपरोक्त 8 नियमों का पालन करते हुए जब अन्न ग्रहण किया जाता है तो वह शरीर के लिए बल तथा पुष्टिकारक होता है।

आहार को अयोग्य रूप से ग्रहण करने पर अपचन के निम्न लक्षण उत्पन्न होते हैं। जैसे खाने की इच्छा नष्ट होना, मुँह का स्वाद बिगड़ना, उल्टी जैसे लगना, पेट मे जलन होना, दस्त होना, पेट मे वायु भर जाना, खट्टी डकार आना, मुँह में छाले आना, पेट साफ ना होना आदि। अगर पचन से संबंधित ये लक्षण सौम्य रूप मे दिखाई दे तो एक समय का उपवास करे और केवल गर्म पानी पीएँ। इसके बाद जब अच्छी भूख लगे तब हलका भोजन करें। इस प्रकार जब पाचन व्यवस्था पूर्ण रूप से सामान्य होने के बाद ही पूर्ण आहार का सेवन करना चाहिए ताकि किसी बड़े रोग से ग्रस्त ना होते हुए आप स्वस्थ रह पाएँ।आहार सेवन करते वक्त उपरोक्त नियमों के साथ उस व्यक्ति की प्रकृति तथा ॠतुनुसार आहार का चयन स्वास्थ्य रक्षा के लिए आवश्यक है।

निद्रा: आहार इस मुख्य स्तंभ के बाद निद्रा यह दूसरा महत्वपूर्ण आयाम स्वस्थ शरीर के लिए जरूरी है। अखंडित तथा शांत निद्रा यह मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ का एक परिमाण भी है तथा आवश्यक घटक भी है। शारीरिक कार्य के बाद शरीर को विश्राम देना अत्यंत आवश्यक है। इसके न होने से अनेक रोग हो सकते हैं। नींद अच्छी होने पर पूरा दिन उत्साहपूर्ण जाता है। स्वास्थ के लिए इस संबंध मे सर्वोत्तम नियम है कि रात को जल्दी सोए और सुबह जल्दी उठे।

ब्रह्मचर्य: उत्तम संतान प्राप्ति के लिए गृहस्थाश्रम में ब्रह्मचर्य पालन यह एक महत्वपूर्ण कदम है। शुक्र यह शरीर को धारण करनेवाले सप्त धातु का सार है। इसलिए उसकी रक्षा करना स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी है।

इस प्रकार आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य का पालन व्यक्ति को मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य रक्षण करने के लिए उपयुक्त है। लेकिन पूर्ण स्वास्थ प्राप्ति के लिए आत्मसंतुष्टि प्राप्त करना भी जरूरी है। इसके लिए मन के विकारों पर विजय प्राप्त करें। सभी प्राणियों के कल्याण की भावना रखें, दूसरों के धन की अपेक्षा ना रखें, सदैव सत्य बोलें, शांतिपूर्ण तथा जितेंद्रिय बनें, पूर्ण विचार करके कार्य करें, सदा सावधान तथा दक्ष रहें, धर्म, अर्थ, काम का सेवन संतुलन के साथ करें। यह सब कदमों के साथ सदैव आत्मसंतुष्टि प्राप्त करें।
इस प्रकार शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक तीनों स्तर पर स्वास्थ्य रक्षण के लिए सदैव कार्यशील रहें।

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